Tuesday, May 19, 2009

आत्मचिंतन का अवसर

Tarun Vijay

जब देश कठिन चुनौतियों से घिरा हो तब अपनी जीत या हार के मुद्दे को पृथक रखते हुए यह देखना चाहिए कि देश ने एक राष्ट्रीय प्रभाव वाले दल के नेतृत्व में गठबंधन सरकार का जनादेश दिया है और बंगाल में वामपंथियों का पराभव हुआ है। ये दोनों ही स्थितियां व्यापक राष्ट्रीय हित की दृष्टि से स्वागत योग्य हैं। सुरक्षा और आर्थिक चुनौतियों के मुकाबले के लिए संकीर्ण क्षेत्रीयतावादी दलों की अपेक्षा राष्ट्रीय दल का स्थायित्व देने वाला शासन अधिक स्वीकार्य होना चाहिए। इस परिणाम की न तो काग्रेस को आशा थी और न ही भाजपा को। आतंकवाद, महंगाई, बेरोजगारी, हिंदुओं के प्रति संाप्रदायिक भेदभाव और मुस्लिम तुष्टीकरण जैसे विषय सामने होते हुए काग्रेस के नेतृत्व में संप्रग जीत गया। इसका अर्थ यह कतई नहीं लगाना चाहिए कि संप्रग की विफलताओं को प्रकट करने वाले तमाम मुद्दे गलत थे या उन पर जनता उद्वेलित नहीं थी। यह वैसे ही होगा जैसे बादलों से भरे आकाश में सूर्य को अनुपस्थित मान लिया जाए। भाजपा को जिन क्षेत्रों में विजय की संभावना थी वहा वह जीती ही है। जहा से उसे अतिरिक्त सीटें मिलने की आशा थी वहा वैसा नहीं हुआ। इसका विश्लेषण करना होगा। कर्नाटक, गुजरात, मध्य प्रदेश जैसे प्रांतों में प्रखर और असंदिग्ध हिंदुत्व के साथ आम जनजीवन के विकास, शिक्षा और महिला सशक्तीकरण जैसे मुद्दे जुड़े तो विधानसभा से लोकसभा तक सफलताएं मिलीं। पारस्परिक मतैक्य, सामंजस्य और विनम्रता के साथ कार्यकर्ताओं को आत्मीय बंधन में जहा बाधा गया वहा भाजपा का विस्तार हुआ। जहा अंतरकलह अखबारों के पहले पन्ने पर छह-छह महीने छाई रही वहा हारे। भाजपा के जन्म में उस राष्ट्रवाद की रक्षा का संकल्प छिपा है जो हिंदुत्व के प्रति शर्मिंदा नहीं, गौरवान्वित करता है। अत: भाजपा को जनादेश प्रखर विचारधारा में आबद्ध संगठन विस्तार की चुनौती के रूप में लेना चाहिए और नए कलेवर के साथ पुनरोदय के लिए जुटना चाहिए। भाजपा ने गाधीवादी समाजवाद से रामरथ यात्रा तक का भी सफर तय किया है, यह याद रखना चाहिए। जब भी वह विचारधारा पर अडिग रही है उसका समर्थन बढ़ा है। उसने 2 सीटों से 184 सीटों तक का भी सफर तय किया है, यह किस आधार पर हुआ?

मुख्य बात है संख्या बल। संख्या बल तब आता है जब आत्मबल मजबूत हो। भाजपा का आत्मबल वैचारिक निष्ठा से शक्ति पाता है। अगर वैचारिक निष्ठा प्रबल नहीं है तो भाजपा और बाकी दलों में अंतर क्या रह जाएगा? अगर भाजपा ने अपने रंग को हल्का किया तो उसका जो वर्तमान जनाधार है वह न केवल अधिक दरक जाएगा, बल्कि नया जनाधार भी नहीं बनेगा। यह समय शात मन से विश्लेषण करने और निर्ममतापूर्वक उन कमियों को दूर करने का है जो भाजपा की बढ़त में बाधक हैं। अब मुख्य चुनौती अगले चुनावों में, वे जब भी हों, अपने दम पर पूर्ण बहुमत लाने के लिए काम करने की है। भाजपा की हर सरकार को पं. दीनदयाल उपाध्याय की सादगी, समर्पण, कार्यकर्ताओं से आत्मीयता और बहुमुखी जनविकास का आदर्श नमूना बनाने का प्रयास करना चाहिए। देश जिन चुनौतियों से घिरा हुआ है उसमें सत्ता पक्ष के साथ राष्ट्रीय मुद्दों पर रचनात्मक सहयोग की भूमिका लेते हुए ऐसा कड़ा विपक्ष देना चाहिए जो सरकार को किसी भी प्रश्न पर कमजोरी न दिखाने दे। संप्रग की जीत का यह अर्थ नहीं है कि क्वात्रोची जैसे मामले, सीबीआई जैसी संस्थाओं में सरकारी दखल, आतंकवाद और बेरोजगारी जैसे मुद्दे निरर्थक हो गए। कड़े विपक्ष की भूमिका में तपते हुए भाजपा को भी आत्ममंथन और आत्मसुधार का मौका मिलेगा।

सोलह मई के नतीजों ने एक ऐसे भारत की संसद चुनी है जिसके 55 प्रतिशत नागरिक गरीबी और उपेक्षा का जीवन बिता रहे हैं। लगभग 28 करोड़ भारतीय गरीबी रेखा से नीचे यानी 50 रुपए प्रतिदिन से भी कम आय पर गुजारा कर रहे हैं तो 19 करोड़ की दैनिक आय 50 से 60 रुपए प्रतिदिन है और अन्य 17 करोड़ 60 से 70 रुपए प्रतिदिन पर जीवन बिता रहे हैं। 25 से 35 प्रतिशत तक मध्यवर्गीय और निम्नमध्यवर्गीय हैं तो शेष 10 प्रतिशत अमीर देश के अधिकाश संसाधनों पर नियंत्रण किए दिखते हैं। ऐसी स्थिति में उस महान और विराट भारतीय स्वप्न को साकार करने कौन सा नेतृत्व उभरकर आ सकेगा जो खतरों से घिरी भारतीय सीमा और आर्थिक बदहाली की शिकार आम भारतीय प्रजा के दु:ख निवारण के लिए ईमानदार प्रतिबद्धता के साथ शक्ति संचय कर सके? जिसे अपनी हिंदू विरासत पर शर्मिंदगी न हो, खम ठोककर स्वात से श्रीनगर तक हिंदू-सिख व्यथा दूर करने के लिए निर्भीक तेजस्विता के साथ खड़ा हो सके। वह भारतीय स्वप्न जिसमें सीमाएं सुरक्षित, शत्रु भयभीत, देशभक्त नि‌र्द्वंद्व तथा समाज विद्या, धन और आपसी सामंजस्य से परिपूर्ण हो, आज किस नेता की आखों में दिखता है? आज तो नेपाल और बांग्लादेश तक में हिंदू विरोधी तत्व हमें आखें दिखा रहे हैं।

श्रीलंका में तमिलों के साथ भीषण अत्याचार हो रहे हैं, लाखो तमिल परिवारों के शरणाथर्ीं बनने की व्यथा के प्रति भारत का राजनीतिक वर्ग पूर्णत: उदासीन दिखता है। प्रातीयतावाद इतना हावी है कि कश्मीरियों का दर्द व्यक्त करना जम्मू का दायित्व है, महाराष्ट्र या उड़ीसा का नहीं और तमिलों की वेदना पर कार्रवाई के लिए तमिलनाडु के नेता बोलेंगे, बिहार या पंजाब के नहीं। अखिल भारतीय दृष्टि और भारत के हर हिस्से की वेदना पर हर दूसरे क्षेत्र में समानरूपेण प्रतिध्वनि का भाव गहरा होने के बजाय विरल ही होता जा रहा है। इसलिए राजनीति के वर्तमान खंडित स्वरूप को एक अस्थाई और अस्वीकार्य दौर के रूप में मानकर एक ऐसी अखिल भारतीय समदृष्टि वाली राजनीति के लिए प्रयास आरंभ करने चाहिए जिसमें हर क्षेत्र की आकाक्षाओं और विकास का समानरूपेण ध्यान रखने वाला राष्ट्रीय नेतृत्व विकसित हो।

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