अपने ही देश में शरणार्थी बन चुके कश्मीरी पंडितों की जम्मू-कश्मीर में हो रहे विधानसभा चुनावों में कोई चर्चा ही नहीं. इस समुदाय की हालत और हिम्मत की टोह ले रहे हैं विजय सिम्हा
गोली सिर्फ शरीर को भेदती है जबकि सोच एक समूची नस्ल को. 1990 में जब कश्मीर में अलगाववाद शुरू हुआ तो माहौल में गोलियों के अलावा एक सोच भी घुलने लगी थी. फुसफुसाहटें, पोस्टर और लाउडस्पीकरों से गूंजते नारे इसका अहसास कराते थे.
हम क्या चाहते? आजादी, आजादी
सरहद पार जाएंगे, क्लैश्निकोव लाएंगे
और सबसे ज्यादा भयावह..बटो रोअस ते बटनियो सान, इस बनाओ पाकिस्तान (पंडित के बिना, पंडितानियों के साथ, हम बनाएंगे पाकिस्तान.)
इस सोच को कई बार शब्दों के बिना भी महसूस किया जा सकता था. कभी बदली हुई नजरों से तो कभी बदलते हुए बर्ताव से..
तभी से एक नस्ल के लिए बुरे दिनों की शुरुआत हो गई थी. पहली चोट थी टीका लाल टपलू की हत्या. पेशे से वकील और भाजपा की जम्मू-कश्मीर इकाई के उपाध्यक्ष टपलू चरमपंथियों की गोली का पहला शिकार बने थे. 14 सितंबर 1989 को श्रीनगर में कश्मीरी पंडितों की बस्ती हब्बा कदल के पास उनकी गोली मारकर हत्या कर दी गई थी. जब टपलू की शवयात्रा, जिसमें लालकृष्ण आडवाणी भी शामिल हुए थे, निकल रही थी तो नकाब पहने अलगाववादियों ने उस पर पत्थरबाजी की और जबर्दस्ती बंद दुकानें खुलवाईं.
तब से लेकर आज तक कोई चार लाख कश्मीरी पंडित कश्मीर से गायब हो चुके हैं. ‘बुद्धि ही बल है’, इस सिद्धांत को पूजने वाले कश्मीरी पंडितों को जब घाटी छोड़ने के लिए मजबूर किया गया तो बल के आगे उनकी बुद्धि ने घुटने टेक दिए. उन्हें भागकर जम्मू आना पड़ा. खुली वादियों के बाशिंदों को यहां मिली तंग बस्तियां और अपने ही देश में शरणार्थी होने का दर्द.
18 साल बीत चुके हैं. धूलभरी इन बस्तियों में कश्मीरी पंडितों के उस धूल-धूसरित गर्व को आज भी महसूस किया जा सकता है जो कभी उन्हें अपनी नस्ल पर था. चुनाव का दौर है मगर उनके वोटों की चिंता लगभग किसी को नहीं. जो ये चिंता करने का कष्ट उठाते हुए इन शरणार्थी कैंपों की तरफ आते भी हैं उन्हें ये नजारा दिखता है.
पंडितों, जिन्हें बाकी लोग माइग्रेंट्स यानी शरणार्थी कहते हैं, की दुनिया में जिंदगी कुल जमा दो कदमों का खेल है. उनकी दुनिया एजबेस्टस की छत और चार दीवारों के मेल से बने एक कमरे में सिमटी हुई है. अगर आप इस दुनिया के बीचों-बीच खड़े हों तो दो कदम इधर टॉयलेट है और दो कदम उधर रसोई. दो कदम इस तरफ दीवार पर बना पूजाघर है और दो कदम उस तरफ टीवी. मां-बाप, बहू-बेटा, पोता-पोती सब एक कमरे में रहते हैं. जवान बहू-बेटे को कुछ एकांत मिल सके, इसके लिए बूढ़ी मां या बाप को जबर्दस्ती या तो रिश्तेदारों के यहां जाना पड़ता है या फिर कमरे के बाहर. पर घर में कोई बच्चा हो तो फिर कोई चारा नहीं. बाहर निकलने पर गली नाम की जो चीज दिखती है उससे एक बार में बस एक ही आदमी आराम से गुजर सकता है. अगर दो लोग आमने-सामने से आ रहे हों तो अगल-बगल से गुजरने के लिए उन्हें मुड़कर आमने-सामने होना पड़ता है.
सुबह होने के साथ-साथ बस्ती में रहने वाले बूढ़े एक हाथ में स्टूल और दूसरे हाथ में बांस का पंखा लेकर घर से चलते हैं और बस्ती से लगती सड़क के किनारे बैठ जाते हैं. सपाट चेहरे के साथ आती-जाती गाड़ियों और लोगों को देखती इन जिंदगियों को देखकर लगता है जसे मौत के इंतजार में वो बस किसी तरह वक्त काट रही हैं. दोपहर में घर से खाने का बुलावा आता है और इसके बाद फिर वही इंतजार शुरू हो जाता है. तब तक जब तक कि दिन की रोशनी पूरी तरह ढल नहीं जाती.
24 साल की बबीता रैना जवान है और खूबसूरत भी. जब वो यहां आई थी तो उसकी उम्र महज छह साल थी. बबीता को लगने लगा है कि उसका समय खत्म हो रहा है. वो कहती है, ‘मेरी जिंदगी में कुछ भी अच्छा नहीं. अपने चारों तरफ देखिए. एक कमरे में मैं क्या कर सकती हूं? कुछ सोच नहीं सकती, नाराज नहीं हो सकती. लड़के मुझ में दिलचस्पी नहीं लेते क्योंकि मैं कैंप में रहती हूं. पिछले हफ्ते फोन पर एक लड़के से बात कर रही थी तो कैंप में बात उड़ गई कि मेरा चक्कर चल रहा है.’
बात खत्म करने के बाद बबीता कुछ मिनटों तक दीवार को ताकती रहती है फिर उसकी आंखों से आंसू झरने लगते हैं. वो बहुत भावुक है. जिंदगी से उसे ज्यादा कुछ नहीं चाहिए. उसकी सबसे बड़ी चाह यही है कि कोई नौकरी मिले तो इस जगह से छुटकारा हो. बबीता कंप्यूटर्स से एक पोस्ट ग्रेजुएट कोर्स कर रही है. वो कहती है, ‘मैं डॉक्टर बनना चाहती थी. मगर जानती हूं कि ज्यादा से ज्यादा मुङो दिल्ली में कोई कंप्यूटर जॉब ही मिल सकता है. उस दिन मेरा दूसरा जन्म होगा जिस दिन पते की जगह मुङो 117, मुथि कैंप नहीं लिखना होगा.’
18 साल बहुत लंबा वक्त होता है. और कभी-कभी जब घर पहुंचने में ज्यादा लंबा वक्त लग जाए तो आप अनचाहे भी हो सकते हैं. कश्मीर में आग अब भी धधक रही है. कट्टरपंथी मुस्लिम नेताओं की पंडितों की वापसी में कोई दिलचस्पी नहीं है. पंडितों के मुसलमान दोस्त अपनी जान का खतरा मोल नहीं लेना चाहते और जम्मू में स्थानीय हिंदू उन पर तानाकशी करते हैं.
राजनाथ डार 44 साल के हैं. छह साल पहले ही उन्हें एक प्राइवेट फाइनैंस कंपनी में नौकरी मिली थी. तनख्वाह 6000 रुपये महीना है. जब तक वो 50 के होंगे तब तक ये आंकड़ा ज्यादा से ज्यादा 8000 तक पहुंचेगा. उन्हें अपनी बेटी की शादी की फिक्र है. डार कहते हैं, ‘कम से से कम अब मैं सुबह नौकरी पर जाने के लिए बस तो पकड़ता हूं. इससे पहले 12 साल तक तो मैं सुबह छह बजे उठता था और अपने दोस्तों के दरवाजों पर कंकड़ मारकर उन्हें जगाता था. इसके बाद दोपहर के खाने तक हम गप्पें मारते थे, अखबार पढ़ते थे और कैरम, वॉलीबॉल और क्रिकेट खेलते थे. उसके बाद टीवी पर खबरें देखना होता था. कई साल तक दिन यूं ही गुजरे.’
कभी-कभी प्रशासन और सरकार को उनकी सुध आई भी. कुछ समय पहले प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह कैंप में आए थे. उनसे मुलाकात के दौरान 80 साल के एक बूढ़े ने अपने छोटे से कमरे के छोटे से दरवाजे की ओर इशारा करते हुए पूछा, ‘जब मैं मरूंगा तो लोग मेरी लाश कैसे बाहर निकालेंगे.’ सिंह भावुक हो गए. उन्हें अहसास हुआ कि नाम के ये घर लोगों को सर्दी, गर्मी और बरसात से भले ही बचा लेते हों मगर रहने वालों से उनका आत्मविश्वास छीन लेते हैं. शायद इसी घटना की प्रतिक्रिया में उन्होंने पंडितों के लिए करोड़ों रुपये के पैकेज का एलान कर दिया. उन्होंने कहा कि पंडितों को जम्मू से कुछ दूर एक नए शहर में फिर से बसाया जाएगा. एक प्रधानमंत्री ज्यादा से ज्यादा यही कर सकता है. वो राहत पैकेज दे सकता है. मगर पंडितों के दिमाग में बसा डर और शक और अतिवादी मुसलमान के मन में सुलग रहा गुस्सा दूर नहीं कर सकता.
जख्म भले ही भर जाते हों मगर उनकी टीस रह-रहकर सालती है. खासकर तब जब आप चाहकर भी किसी के लिए कुछ न कर पाएं. 1989 में जब शरणार्थी जम्मू पहुंचने लगे तो विजय बकाया वहां के जिला कलेक्टर थे. कश्मीरी पंडित समुदाय से ही ताल्लुक रखने वाले बकाया के पास उनके लिए न कोई जवाब था, न पैसा और न जगह. बकाया याद करते हैं, ‘वे अपने ट्रक मेरे घर के बाहर खड़े कर देते थे. नौजवान, जिंदगी में पहली बार अपने गांवों से बाहर निकली बूढ़ी औरतें..सबके चेहरों पर सवाल. पेशेवर नौकरशाह होने की वजह से मैं उनके साथ घुलमिल नहीं पा रहा था. मेरी बीवी और मां ने मुझसे झगड़ना शुरू कर दिया कि मैं उनके लिए कुछ कर क्यों नहीं रहा.’
खदेड़े जाने से पहले पंडित वादी की ठंडी आबोहवा में रहते थे. जम्मू इस मामले में बिल्कुल अलग ही दुनिया थी - गर्म, धूलभरी और डरावनी. जम्मू में पंडितों की भीड़ बढ़ रही थी. जिस जगह वे जमा हो रहे थे वो सांपों का इलाका था. कुछ पंडित उनके काटने से मारे गए. कुछ और लू की भेंट चढ़ गए. बकाया कहते हैं, ‘जम्मू में हमारे पास एंटी वेनम सीरम नहीं था. हमें ये दिल्ली से मंगवाना पड़ा.’ दूसरी समस्या गर्मी की थी. पंडितों को राहत पहुंचाने के लिए बड़ी संख्या में बर्फ की सिल्लियां कैंपों में रखी गईं.
प्रशासन चकराया हुआ था. वरिष्ठ अधिकारी इस समस्या का कोई हल निकालने की उधेड़बुन में लगे थे. अचानक उन्हें एक हल सूझ. हल ये था कि शरणार्थियों को वापस भेज दिया जाए. ये काम जबर्दस्ती नहीं हो सकता था इसलिए अधिकारियों को लगा कि यदि पंडितों के लिए जम्मू में हालात कश्मीर से भी बदतर कर दिए जाएं तो वो वादी में लौट जाएंगे.
प्रशासन ने एक कमरे के कामचलाऊ मकानों की योजना बनाई जो सिर्फ सर्दी, गर्मी और बरसात से बचाने का जुगाड़ थे. इसके पीछे सोच ये थी कि पंडितों को लगे कि इनमें जिंदगी बस किसी तरह ही गुजर सकती है और उनके पास वापस लौटने के अलावा कोई रास्ता नहीं है. बकाया कहते हैं, ‘एक कमरे में 10 लोग होते थे. आप समझ सकते हैं हालात कितने दयनीय रहे होंगे.’
अखबारों में प्रशासन की काफी आलोचना हुई. इससे अधिकारी गुस्से में आ गए. उन्होंने शरणार्थियों पर कायर होने का ताना मारते हुए कहा कि पंडितों को वादी छोड़ने की जरूरत नहीं थी और उन्होंने जम्मू में भी मुश्किलें पैदा कर दी हैं. बकाया कहते हैं, ‘मेरे मन में हमेशा एक ही सवाल होता था, आखिर उन्हें भागने की जरूरत क्या थी?’
बकाया को इसका जवाब कुछ साल बाद मिल गया. वो याद करते हैं, ‘ये 1990 में चरार-ए-शरीफ के जलने के समय की बात है. मैं श्रीनगर में था और शहर में कर्फ्यू लगा हुआ था. रात 12 बजे के बाद की बात रही होगी. अचानक पास की मस्जिद से एक जोर का शोर उठा. मैं भागकर बालकनी में आया. मैंने देखा कि मस्जिद के बाहर लोगों की भारी भीड़ जमा थी और मस्जिद के लाउडस्पीकर से नारे गूंज रहे थे. कश्मीर में अगर रहना है, अल्लाह हो अकबर कहना है. यहां क्या चलेगा, निजाम-ए-मुस्तफा. मेरा दिल जोर-जोर से धड़कने लगा. सिर्फ नारे सुनकर मेरा ये हाल था. उन पंडितों का क्या हुआ होगा जो ऐसे लोगों से घिरे थे. पंडितों की बात सही थी. हमारे पड़ोसी वहां नहीं थे. न कोई सुरक्षा थी न गश्त होती थी. मुझे अपने सवाल का जवाब मिल गया था.’
मगर शरणार्थी पंडितों के सवाल अब भी अनसुलझे हैं. प्रत्येक परिवार को हर महीने अधिकतम 4000 रुपये, नौ किलो चावल, एक किलो चीनी और प्रति व्यक्ति दो किलो आटा मिलता है. ये गुजर-बसर के लिए मिलने वाली राहत है. 39 साल के संजय राजदान अपनी मां, पत्नी और दो बेटों के साथ मुथि कैंप में रहते हैं. 33 साल की उम्र में उनकी शादी हुई और 35 साल की उम्र में उन्हें नौकरी मिली. तीन साल पहले उन्होंने Þाीनगर का अपना घर पांच लाख रुपये में बेच दिया. उन्हें नहीं लगता कि उनकी जिंदगी कभी कैंप से बाहर निकल पाएगी. राजदान कहते हैं, ‘बहुत लंबा वक्त हो गया है. घाटी में रह रहे पंडित भी अब हमसे घुलमिल नहीं पाते. लगता यही है कि मेरी कहानी एक शरणार्थी के रूप में ही खत्म हो जाएगी.’
28 साल के अशोक पंडिता उन कुछ शरणार्थियों में से हैं जिन्हें बाकी के बनिस्बत कामयाब कहा जा सकता है. वो दिल्ली में एक अच्छी कंपनी में सीनियर इंजीनियर हैं. पंडिता के लिए कामयाबी का ये सफर काफी मुश्किलों भरा रहा. वो बताते हैं, ‘कुपवाड़ा में हमारा समृद्ध परिवार था. अखरोट का बगीचा था. बचपन में गांव के कुछ लोग दो-तीन महीने के लिए गायब होकर फिर लौट आते थे. मुझे ये जानने की उत्सुकता होती थी कि आखिर ये लोग कहां जाते हैं. धीरे-धीरे मुझे अहसास होने लगा कि कुछ बदल रहा है. टीचर मुझसे मेरे देश का नाम पूछते तो मैं हिंदुस्तान कहता और मुसलमान बच्चे पाकिस्तान. हालांकि मुझे पता नहीं था कि इनमें क्या फर्क है. फिर एक दिन जिया-उल-हक की मौत हो गई और सरकारी प्राइमरी स्कूल होने पर भी वहां दो दिन की छुट्टी का एलान कर दिया गया. मुङो इंदिरा गांधी की मौत का दिन भी याद है. हमारे स्कूल में खुशियां मनाई जा रहीं थीं. उन्होंने एक महीने की छुट्टी घोषित कर दी थी.
एक दिन कुपवाड़ा में मुस्लिम नेताओं ने एक बैठक की. बैठक के बाद लोगों ने पुलिस और सेना पर हमला शुरू कर दिया. उन्होंने एक सिपाही को मार दिया. सेना ने जवाब में फायरिंग की जिसमें कई मुसलमान मारे गए. इससे पूरे इलाके में तनाव फैल गया.’
पंडिता के पिता में इतनी हिम्मत नहीं थी कि वो बेटे को सच बता पाते इसलिए एक दिन उन्होंने कहा कि वो कुछ दिन के लिए जम्मू घूमने जा रहे हैं. पंडिता कहते हैं, ‘मैं बहुत खुश था क्योंकि मैंने जम्मू नहीं देखा था. मैंने अपना क्रिकेट का सामान वहीं छोड़ दिया. हमने अपनी गाय भी छोड़ दी. शायद मैं थोड़ा बड़ा होता तो विरोध करता. जम्मू में हमें बहुत दिक्कतें हुईं. पढ़ाई में तेज होने की वजह से स्कूलों में हमें ज्यादा तरजीह मिलने लगी. इससे स्थानीय लोग हमारे दुश्मन हो गए. हिंदू ही हमसे लड़ने लगे थे. शुरुआती दिनों में हम यहां कहीं ज्यादा असुरक्षित थे. हम पर दबाव बहुत ज्यादा था. कश्मीर के आतंकवादियों से कहीं ज्यादा नफरत में जम्मू के लोगों से करता हूं. जम्मूवालों ने मुसीबत में हमें लात मारी. मेरा बस एक ही मकसद था — खूब पढ़ना और वहां से बाहर निकलना. जिंदगी मुश्किलों भरी थी. आंधी-तूफान के दौरान हमें सारी रात जगे रहकर अपने तंबू को उड़ने से बचाना होता था. स्थानीय हिंदू हमें कायर कहते थे. हम कुछ नहीं कर सकते थे. मुङो अपने समुदाय की नपुंसकता पर झल्लाहट होती थी. फिर अचानक बाल ठाकरे ने महाराष्ट्र में कश्मीरी पंडितों के लिए शिक्षा कोटे का एलान कर दिया. इस कोटे की वजह से ही मैं जलगांव से इंजीनिय¨रग कर पाया. मैं बाल ठाकरे का बड़ा अहसानमंद हूं.’
हालांकि पंडिता अब भी खुश नहीं हैं. वजह है जम्मू में रह रहे पंडितों में पड़ती आपसी फूट. अपने लिए बन रहे अपार्टमेंट्स के चक्कर में पंडित आपस में ही झगड़ रहे हैं. उनमें से कुछ इस चक्कर में हैं कि उन्हें अच्छा घर अलॉट हो जाए और ऐसा करने के लिए वो सरकारी अधिकारियों को घूस दे रहे हैं. पंडिता कहते हैं, ‘इतना कुछ झेलने के बाद उन्हें ऐसा करते देख कर बहुत बुरा लगता है.’
हालांकि कुछ लोग ऐसे भी हैं जो हालात से निपटने के उपाय खोजने की कोशिश कर रहे हैं. उदाहरण के लिए जम्मू में बनी सबसे नई राजनीतिक पार्टी जम्मू एंड कश्मीर नेशनल यूनाइटेड फ्रंट. चार अगस्त 2008 को चुनाव आयोग इसका पंजीकरण भी कर चुका है. पार्टी की पहली सदस्य हिंदू देवी माता रानी हैं जिनके नाम पर पार्टी नेतृत्व ने पांच रुपये की सदस्यता शुल्क की रसीद काटी है. 57 वर्षीय विजय छिकन इसके कोषाध्यक्ष हैं. उनके मुताबिक पार्टी के 10,000 सदस्य हैं जिनमें 6000, चालीस साल से कम उम्र के हैं. पार्टी का चिन्ह दफोदिल (उर्दू में नरगिस) है और उसका एजेंडा है कश्मीरी पंडितों का पुनर्वास, पंडित समुदाय के नौजवानों को उनके अधिकार और कश्मीरी हिंदुओं के लिए आरक्षण.
कभी छिकन की कश्मीर में अपनी फैक्ट्री हुआ करती थी. उनके कई मुसलमान दोस्त थे जिनमें एक नौजवान बिजली मिस्त्री भी था. एक दिन छिकन को लगा कि वो उनका पीछा कर रहा है. वो बताते हैं, ‘मुझे शक हुआ कि कुछ गड़बड़ है. मैं डर गया. मुङो याद आया कि किस तरह मेरे एक दोस्त की हत्या से पहले उसका ऐसे पीछा किया गया है. मैं एक दुकान में घुस गया और दुकानदार को बातों में उलझकर वक्त काटता रहा. इस दौरान वो भी कुछ दूर स्थित एक दुकान में इंतजार कर रहा था. जब मैं दुकान से बाहर निकला. वो भी बाहर निकल आया. जब वह बहुत करीब आ गया तो मैंने अचानक मुड़कर उससे पूछा कि क्या वो मुझसे कुछ कहना चाहता है. उसने कहा कि उसे किसी मसले पर मुझसे बात करनी थी. मैंने उससे सुबह आने को कहा. रात को मैं घर में न रहकर अपनी ससुराल में रहा फिर वहां से जम्मू चला आया. बाद में पता चला कि उसे मेरी हत्या की जिम्मेदारी दी गई थी.
शरणार्थी की जिंदगी ने छिकन की सोच को जमा दिया है. हर चीज से पहले अब वो कश्मीरी पंडित को रखते हैं. वो कहते हैं, ‘अब जम्मू से भी पंडित बड़ी संख्या में बाहर निकल रहे हैं और मुङो इससे चिंता होती है. जल्द ही दूसरे समुदायों में शादियां होने लगेंगी और हमारा अस्तित्व खतरे में पड़ जाएगा. हमारे भीतर 5000 साल पुराने ‘प्योर जीन्स’ हैं. हमें इसे इसी तरह कायम रखना चाहिए. हमें अपनी संस्कृति को बचाना होगा. जसा आजकल चल रहा है उसे देखते हुए तो लगता नहीं कि भविष्य में कोई बुजुर्ग पंडितों से सलाह-मशविरा लेगा. कंप्यूटर से मैचमेकिंग होने लगेगी और ये नस्ल तबाह हो जाएगी.’
पंडितों को किसी पर भरोसा नहीं. एक समय था जब वो इस बात पर हैरान होते थे कि उनका देश उन्हें बचाने के लिए आगे क्यों नहीं आया. अब उन्हें इसकी वजह मालूम है. पंडित अब अपने वोट को हथियार बनाना चाहते हैं. इसका एक तरीका ये है कि वो एक ही जगह पर रहें. इसीलिए वो अपने लिए अलग से एक शहर की मांग कर रहे हैं.
संजय राजदान के घर में उनका बेटा पहाड़े का सबक सीख रहा है, पांच इकम पांच, पांच दूने सात..एक दिन उसकी गणित सही हो जाएगी और तब वो हिसाब मांगेगा. बेहतर होगा कि कोई जवाब तैयार कर ले.
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